Tuesday, July 31, 2007

राख के ढेर में शोला भी है, चिंगारी भी!

उन नाराज विधायकों को जो प्रदेश सरकार के कामकाज से असंतुष्ट होकर दिल्ली गुहार लगाने गए थे, पिछले दिनों अंबिकापुर में संपन्न हुई भाजपा प्रदेश कार्यसमिति की बैठक में जमकर फटकार खानी पड़ी. अब यह असंतुष्ट नाराज नहीं बल्कि दु:खी हैं. सत्ता और संगठन दोनों स्तरों पर मात खाने के बाद अब इनकी नाराजगी दुख में तब्दील हो गई है.लेकिन उनके दुख को कौन जाने. किसी के दुख पर भला कौन दुखी होता है. बकौल शायरकिसी के रोने पे कौन रोता है दोस्त सबको अपने रोने पे रोना आता है. विरली ही आत्माएं होती हैं जो किसी के दुख से दुखी हों. अब विधायकों का दुख कौन जाने. सत्ता प्राप्ति को कमोबेश साढ़े तीन-चार साल गुजर चुके हैं. इस बीच जनता भी अपने विधायकों सांसद दो को बखूबी परख चुकी है. इसीलिए जनता भी अपने नेताआें के दुख से दुखी नहीं होती. हां, स्वार्थी तत्वों को अपने नेताआें को दुख से दुख जरुर होता होगा, योंकि गुर्गे अच्छी तरह जानते समझते हैं कि जब तक अपने नेता की पूछ परख है, तब तक सरकार दरबार में उनकी भी तूती बोलती है. आखिर नेताजी के बर्दहस्त से ही तो कमा खा रहे हैं. और जब नेताजी की ही. कोई पूछ परख नहीं होगी, तो उन्हेंं कौन पूछेगा. रही बात अफसरों की, तो वह भी तभी तक पूछ परख करते हैं, जब तक नेताजी के हाथ में सत्ता की बागडोर रहती है, फिर उसके बाद तू कौन और मैं कौन? इस मुल्क में सबसे ज्यादा अवसरवादी कोई है तो वह है अफसरशाही. अफसर किस तरह अपना रंग बदलते हैं, उसे देखकर तो गिरगिट भी मात खा जाएं. इसलिए गुर्गे जानते हैं कि उनकी बिसात नेताजी से ही है. जब नेताजी पंगू हो गए तो उन्हें कौन पूछेगा. मगर दिक्कत यह है कि नेताजी के दुख को कौन जाने. अब नेताजी खुलकर यह बात तो कह नहीं सकते कि चार साल गुजर गए, अब तक कोई असरदार पद नहीं मिला, कम से कम बचे हुए एक साल में ही कोई ऐसा पद दे दो. सारी विधायी इंतजार में ही चली गई. अब अगली बार तो सरकार आने से रही. जिन लोगों को अब तक मलाई मारने का अवसर मिल चुका है, उन्हें किनारे कर नए लोगों को मलाई मारने का अवसर मिलना चाहिए. तीन-तीन बार सरकार में फेरबदल हो गया. जो जैसे थे की मुद्रा में हैं तो औरों का या होगा? अगर अब नहीं तो कब?भाजपा प्रदेश कार्यसमिति की बैठक में फिर अनुशासन की तलवार लहरा उठी. असंतुष्ट ों को कड़ी फटकार लगाते हुए कहा गया कि बेटा, यदि यह गतिविधियां नहीं रूकी तो सारी मेहनत बेकार चली जाएगी. सत्ता में आलोचनाएं होती हैं, इसका समाधान घर बैठकर किया जा सकता है. 'आदिवासी ए सप्रेस` पर बैठकर दिल्ली जाने की या जरुरत थी. इसलिए आपकी हद में रहो और अगला चुनाव जीतना ही है. कौन सा मुंह लेकर जनता के सामने जाएंगे. अब हर विधायक के नसीब में खैरागढ़ और मालखरौद थोड़ी न लिखा है. पार्टी का असंतोष और जनता की भावनाआें पर खरा न उतरने का दुख. अब इसका खुलासा तो समय आने पर ही होगा न. बटोरने वाले तो दोनों हाथों से बटोर रहे हैं और जो न बटोर सके, वे दुखी हैं.

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