Saturday, August 4, 2007

प्रेमचंद का साहित्य किसान वर्ग की महागाथा

प्रेमचंद जयंती प्रगतिशील लेखक संघ और जन संस्कृति का संयुक्त आयेाजन

भिलाई नगर. उपन्यास सम्राट कथाशिल्पी मुंशी प्रेमचंद की क्ख्स्त्र वीं जयंती पर प्रगतिशील लेखक संघ और जनसंस्कृति मंच के संयुक्त तत्वावधान में लिटररी लब भिलाई नगर में आज का भारतीय किसान और प्रेमचंद विषय पर विचार गोष्ठी का आयोजन किया गया.
विचार गोष्ठी में प्रमुख वक्ता समीक्षक प्रो. सियाराम शर्मा एवं विशिष्ट अतिथि बांग्ला कवि मधु भट्टाचार्य, मलयालम कथाकर के सुधाकरण व पंजाबी कवि करम जीत सिंह थे.
प्रेमचंद और आज के भारतीय किसान पर अपने विचार व्यक्त करते हुए प्रो. सियाराम शर्मा ने कहा, प्रेमचंद का साहित्य किसान वर्ग की महागाथा है. आजादी के उतने वर्षों बाद भी किसानों की स्थिति बेहतर नहीं हुई है. देश में गत पाँच वर्षों में पचास हजार किसानों ने आत्महत्या की. किसान की फसल पर किसान का अधिकार नहीं है.उसकी जमीन छीनी जा रही है. एवज में नौकरी की गारंटी भी नहीं है. वह दैनिक मजदूरी के लिये मजबूर हो रहा है. प्रेमचंद के समय भी किसानों की यही दशा थी.इसीलिये प्रेमचंद आज भी प्रासंगिक हैं. प्रेमचंद का साहित्य किसानों मजदूरों को अपने शोषण को पहचानने की समझ देता है.
कथाकार लोक बाबू ने अतिथियों का स्वागत करते हुए कहा, भारत में लोकप्रिय लेखक के रूप में तुलसी दास के बाद प्रेमचंद दूसरे पड़ते हैं, वे सामंतवाद, साम्राज्यवाद और पूँजीवाद के विरोधी थे और व्यवस्थाआें के चलते किसानों मजदूरों पर हो रहे शोषण के विरूद्घ उनका साहित्य हमें सचेत करता है. वरिष्ठ कवि रवि श्रीवास्तव ने कहा प्रेमचंद ने भारतीय किसान के दुख और संघर्ष को अपने साहित्य में रचा है. रविभूषण शर्मा ने कहा आज किसान फसलों के रूप में सपनों को बोता है, और उसे उजड़ता हुआ देखता है. समीक्षक अशोक सिंघई ने कहा-आज यूरोप-अमेरिका के किसानों को जितनी सब्सिडी मिलती है, भारतीय किसानों को नहीं दी जाती. इससे यहाँ अनाज महंगा जो जाता है. कृषि क्षेत्र असंगठित हैं. इस पर विचार की जरूरत है. बांग्ला कवि भट्टाचार्या ने कहा-प्रेमचंद ने किसानों की सौ साल पहले जो स्थिति देखी थी आज भी वैसी ही है. से टरों में बैठकर किसानों के बारे में सोचना भी बेमानी लगता है. मलयालय कथाकार के सुधाकरण ने कहा कृषि जमीन पर सासंदों, विधायकों व्यापारियों का बड़ा कब्जा है. तीन-तीन सौ एकड़ के भी वे मालिक हैं. असली किसान उनकी मजदूरी करता है. युवा पीढ़ी से भी आशा नहीं बंधती, वह पाश्चात्य प्रभाव में बिगड़ती जा रही है. पंजाबी कवि करम जीत सिंह ने कहा-किसानों को अपने सुखद स्थिति के कारणों का पता नहीं है. वे आत्म हत्या करते हैं तो वैसी हलचल नहीं होती. वे किसी की हत्या कर दें तो शायद कुछ हो. प्रो. नलिनी श्रीवास्तव ने कहा आज भारतीय किसान की हालत बहुत ही दर्दनाक है. लगता है प्रेमचंद का साहित्य आज का ही लिखा हुआ है. कथाकार कैलाश बनवासी ने कहा आज साहित्य मध्य वर्ग के मोह में फंसा है. बौदि्घक वर्ग किसान मजदूर हितों के विरूद्घ हो गया है. किसान मजदूर चर्चा में तभी आते हैं जब उन्हें गोली मार दी जाती है. विचार गोष्ठी का संचालन करते हुए कवि परमेंश्वर वैष्णव ने कहा साहित्य की सारी विधाओं पर प्रेमचंद का लेखन अपने समय-समाज पर गहरा नैतिक हस्तक्षेप है. प्रेमचंद का साहित्य किसानों की बदहाली का प्रमाणिक दस्तावेज है. घनश्याम त्रिपाठी, सुभद्रा शर्मा, त्रयंबक राव साटकर, अंजन कुमार ने भी अपने विचार व्यक्त किये.
इस वैचारिक गोष्ठी में बसंत देशमुख, डा. के.एस. प्रकाश, राजेश श्रीवास्तव, मणिमय मुखर्जी, नरेंद्र राठौर, एस.के. जैन, बृजेंद्र तिवारी, छगन लाल सोनी, डा. दानी प्रसाद शर्मा, मणिक राव गंवई, रूद्रमूर्ति श्री निवास, के.के. श्रीवास्तव, राम बरन कोरी, के शिश, जय प्रकाश नायर, सुखदेव सिंह, शिव मंगल सिंह, श्याम लाल साहू, डा. शीला शर्मा, बी. के. राव दीवाना, एस.डी.कंग, विश्व जीत हाराडे आदि की भी महत्वपूर्ण भागीदारी थी. गोष्ठी का संचालन प्रगतिशील लेखक संघ भिलाई-दुर्ग के सचिव परमेश्वर वैष्णव ने, एवं धन्यवाद ज्ञापन जन संस्कृति मंच के सहसचिव अंजन कुमार ने किया.

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