Saturday, August 4, 2007

सप्ताह की कविता

बच्चों की तरह
हम मिले
जैसे मिलते हैं
देा बच्चे
बातें की
दोस्ती की
रूठते-मानते
खुश रहे
हमने कुछ
नहीं देखा
सुना जाना
एक-दूसरे के सिवा
शिशिर की
चांदनी ात
जैसा था हमारा मन
पर धीरे-धीरे
तुम्हारा मन
कुहरे से घिरे गया
तुम सब कुछ
माप-तौल कर करने लगे
अब हम नहीं मिलते
जैसे मिलते हैं बच्चे.
तुम्हारी रोशनी
जंगल की
झोपड़ी मंे
टिमकते
नन्हें चिराग हो तुम
जब भी भटकती हूं
तुम्हारी रोशनी
राह दिखाती है - रंजना जायसवाल

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