बसंत तिवारी
न सल समस्या से निपटने के लिये छत्तीसगढ़ विधानसभा ने 26 जुलाई को बंद सदन लोज डोर बैठक कर समस्या पर विस्तार से चर्चा की. यह कहा जा रहा है कि स्वाधीन भारत के इतिहास में अपने किस्म की यह पहली बैठक है. इसके पूर्व ख्स्त्र फरवरी क्ेब्ख् को कंेद्रिय ऐसेम्बली में ऐसी बंद सदन बैठक हुई थी.
न सली समस्या से निपटने और उससे मुक्ति पाने पर आम सहमति जाहिर की गई. जहां तक समस्या से निजात पाने का प्रश्न है. उसपर तो असहमति पहले भी शायद ही थी. सदन के सदस्य ही नहीं छत्तीसगढ़ के आम आदमी सहित देश का कोई भी नागरिक न सलवाद के घाव को पाल कर नहीं रखना चाहता. प्रश्न आम सहमति तक सीमित नहीं है. प्रश्न समस्या से निपटने की नीति और कार्ययोजना की सहमति का है. बंद सदन में चर्चा का उ ेश्य यही था कि विधायक अपनी बात बिना संकोच और भय के खुलकर करें. स्वाभाविक है कि इस बैठक में कहीं गई बातें खुलकर सार्वजनिक नहीं होगी, यद्यपि वे दर्ज की गई हैं. उन्हीं के आधार पर सरकार नीति और कार्ययोजना बनायेगी. विश्वास किया जाना चाहिये कि सूचना के अधिकार के तहत कोई इन्हे जानने का प्रयास नहीं करेगा. नियम क्म्फ् के तहत यह बंद बैठक हुई थी, उसमें पूर्ण गोपनियता रखने का प्रावधान है. या यह माना जाय कि छत्तीसगढ़ शासन इसके सुझावों के आधार पर नीति, रणनीति और कार्ययोजना बनाकर एक बार फिर सदन को विश्वास में लेकर सहमति प्राप्त करेगा अथवा इस बैठक के बाद बनने वाली नीति पर कोई बहस नहीं करेगा. छत्तीसगढ़ शासन की नीति कोई ऐसा फार्मूला प्रस्तुत करेगी जिस पर केंद्र की सहमति होगी और उसी आधार पर देश के अन्य क्षेत्रों में न सलवादियों से निपटा जायेगा.
अब तक की जानकारी तो यही है कि कंेद्र सरकार कोई कारगर नीति नहीं बना पाई है. वर्तमान यू.पी.ए.सरकार की कठिनाई कुछ ज्यादा है योंकि वह वामपंथी दलों के समर्थन पर अस्तित्व में है और वामपंथी दल न सली समस्या पर बहुत स्पष्ट नहीं हैं. वे इस समस्या को बंदूक की गोली से तो निश्चित ही नहीं निपटाना चाहते. वे लोकतांत्रिक व्यवस्था की ही बात करते आये हैं. न सलवाद छत्तीसगढ़ अकेले की समस्या नहीं. है यद्यपि यहां सबसे गंभीर रूप मंे हैं. अत: नई नीति पर केंद्र और राज्य की सहमति होना शायद आवश्यकता होगा. अब तक केेंद्र राज्यों पर और राज्य केंद्र पर इसके लिये दोषारोपण करते आये हैं.छत्तीसगढ़ सरकार यों कोई कार्ययोजना बनाकर केंद्र को सहमति के लिये भेजेगी या फिर हर तरह की असहमति के बाद भी अपनी नीति पर अमल करेगी.
छत्तीसगढ़ में न सलवाद के खिलाफ आम आदमी आदिवासी का विरोध तो सलवा जुडूम के माध्यम से व्यक्त हो चुका है और यह आंदोलन इतनी दूर तक जा चुका है कि उसे वापस लिया जाना आत्मघाती हो सकता है. बंद सदन में या सलवा जुडूम को जारी रखने पर आम सहमति बन सकी है. कांग्रेस का बड़ा वर्ग इसके विरूद्घ राय प्रकट करता आया है. राज्य के डीजीपी ने कहा था कि वे कुछ करने आये हैं और न सलियों से बंदूक से निपट सकते हैं. यह भी नीति से जु़डा प्रश्न है. या केंद्र और राज्य ने युध्द जैसी रणनीति बनाना तय कर लिया है. यदि यह नीति शुरू से रही होती तो छत्तीसगढ़ में इतना विस्तार न सलवाद शायद ही कर पाता.
प्रशासन, राजनीतिक दल और समाजशास्त्री इसे सामाजिक समस्या स्वीकार कर चुके हैं और कानून व्यवस्था और सामाजिक सुधार दोनों ही कदमों को एक साथ आगे बढ़ाने की वकालत करते आये हैं.बस्तर की स्थिति में प्रश्न यही है कि दोनों ही रास्ता अवरूद्घ जैस है. सलवा जुडूम यदि सामाजिक सुधार का रास्ता है तो उसका विरोध यों हो रहा है और कानून की लड़ाई है तो बंदूक की गोली का विरोध यों होना चाहिये. यह भी सर्व स्वीकृ त है कि आदिवासी क्षेत्रों को विकास की धारा में शामिल नहीं कर पाने से बस्तर जैसे क्षेत्र की ओर घोर उपेक्षा हुई और न सलवाद को अपनी जगह बनाने का अवसर मिला. मध्य प्रदेश यदि ब्ब् साल उपेक्षा करता रहा तो छत्तीसगढ़ राज्य ने अपनी कार्ययोजना में या बस्तर की न सल समस्या को प्राथमिकता में प्रथम रखा. दिखता तो यह है कि श्रृंगारिक विकास मंे अपने स्त्र वर्ष वह गुजार चुकी है.
एक सुझाव यह भी दिया जाता रहा है कि न सलियों से युध्दविराम करा कर उन्हें लोकतांत्रिक प्रक्रिया, चुनाव में भागीदारी का अवसर दिया जाये जैसा कि नेपाल में माओवादियों को दिया गया है. बस्तर के न सली या इसके लिये तैयार है. अब तक न तो उन्हांेने ऐसी कोई राय दी है न ही उनकी यह नीति है और न ही उनसे ऐसी कोई चर्चा हुई है. बंद सदन में निश्चित ही ऐसी ही बहुत सी राय और मशविरे प्रस्तुत हुये होंगे. प्रतीक्षा यह है कि इन मतों और आम सहमति पर राज्य शासन या नीति बनाता है. न सलियों से यदि, सामाजिक या सशस्त्र अथवा दोनो ही युद्घ करना है तो जरूरी नहीं कि उनको विस्तार से सार्वजनिक किया जाये. युकी रणनीति हमेशा ही गोपनीयता ही रखी जाती है. अपेक्षा यह है कि अब बैठकों का सिलसिला समाप्त कर अमल में लाने वाली गोपनीयता या उजागर नीति तय की जाए और उस पर युध्द स्तर पर अमल भी किया जाये. न सलवाद पर हुई सन क्ेम्० से ख्म् जुलाई के बंद सदन की बैठक मंे वही बातें दुहराई जाती रहीं है. कंेद्र कई बार संयुक्त अभियान की बात कह चुका है. पुलिस के राज्य और केंद्र के वरिष्ठ अधिकारी भी संयुक्त अभियान की बात कह चुके हैं पर अमल नहीं हो पाया. न सलवाद पर भूमि सुधार और सशस्त्र कार्यवाही की बात कही जाती रही है, पर यह संयुक्त अभियान कैसे बने. भूमि सुधार और कानून की अलग- अलग राज्यों की स्थितियां अलग-अलग हैं.राज्य और केंद्र की दोनों की नीति एक नहीं हो सकती. न सलवाद से निपटने की सबसे बड़ी समस्या स्पष्ट है और कारगर ढंग से अमल में लाने वाली नीति की कमी है. विश्वास किया जाना चाहिये कि बंद सदन के बाद समस्या के बंद दरवाजे खुलेंगे. क्ेब्ख् को कंेद्रीय एसेम्बली की बंद प्रशस्त हुआ था. ख्म् जुलाई के बाद आदिवासियों की आजादी का दरवाजा खुलना चाहिये.
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