Saturday, August 11, 2007

देश दुनिया

साधारण लोगों के असाधारण काम

राजकोट के एक समाजसेवी और इंजीनियर बेलजी देसाई ने सोलर कूकर की तकनीक इतनी आसान और सुविधाजनक कर दी है कि गांव के अनपढ़ लोग भी इसे एक बार देखकर खुद ही बना लें. पुणे के चन्द्रकान्त पाठक ने अपने जुनून के चलते किसानों और जनसामान्य के काम के ढेर सारे बहु उपयोगी उपकरण बनाए हैं. उन्होंने बैलों से चलने वाला पंप, बिजली उत्पादन का यंत्र, स्प्रे पंप, नदी की धार से चलने वाला पंप, साइकिल जलपंप जैसी कई ऐसी चीजें बनाई हैं जो बड़े-बड़े खर्चीले यंत्रों की तुलना मेंे ज्यादा कारगर और उपयोगी है.

छत्तीसगढ़ मंे खेती-किसानी और गौवंश के पालन में लगे कुछ लोगों ने यह साबित कर दिया है कि गोबरगैस से सिर्फ रसोई ही नहीं, स्कूटर, जीप, ट्रै टर जैसे ढेरों वाहन भी कम खर्चे में चलाए जा सकते हैं. गोबरगैस से इतनी सस्ती बिजली बन सकती है कि यह गांवों की आत्मनिर्भरता की दिशा में मील का पत्थर बन जाए. गोबर और गोमूत्र की सहायता से रासायनिक उर्वरकों व कीटनाशकों की तुलना में कई गुना शक्तिशाली और पर्यावरण के अनुकूल खाद व कीट-नियंत्रक तो अब देश के कई हिस्सों में लोग बना रहे हैं. यवतमाल महाराष्ट्र के निरे साधारण से किसान ने तो इस दिशा मे कई क्रांतिकारी काम कर दिखाए हैं.

राजकोट के एक समाजसेवी और इंजीनियर बेलजी देसाई ने सोलर कूकर की तकनीक इतनी आसान और सुविधाजनक कर दी है कि गांव के अनपढ़ लोग भी इसे एक बार देखकर खुद ही बना लें. पुणे के चन्द्रकान्त पाठक ने अपने जुनून के चलते किसानों और जनसामान्य के काम के ढेर सारे बहु उपयोगी उपकरण बनाए हैं. उन्होंने बैलों से चलने वाला पंप, बिजली उत्पादन का यंत्र, स्प्रे पंप, नदी की धार से चलने वाला पंप, साइकिल जलपंप जैसी कई ऐसी चीजें बनाई हैं जो बड़े-बड़े खर्चीले यंत्रों की तुलना मेंे ज्यादा कारगर और उपयोगी है.

कुछ समय पहले तमिलनाडू के एक साधारण से व्यक्ति रामर पिल्लै ने जड़ी-बूटियों से पेट्रोल सरीखा इंर्धन बनाने का दावा किया तो सरकार और बड़े-बड़े संस्थानों में सुख भोग रहे वैज्ञानिकों ने इसे असंभव करार दिया और रामर पिल्लै को जेल पहुंचवा दिया. लेकिन जब नागपुर में एक धनी अप्रवासी भारतीय ने अनाज वगैरह से क्ख् रूपये लीटर का बायोफयूल बनाकर और अपना निजी विमान उड़ाकर दिखा दिया तो सरकार इस पर शोध की बातें करने लगी. गुजरात के सौराष्ट ्र के इलाके मंे गांवों के लोग अपनी ही प्रतिभा से छोटे-छोटे डीजल इंजनों से ही सस्ते किस्म के ट्रै टर और जीपनुमा वाहन बनाकर अपना काम चला लेते हैं.सरकार का हाल यह है कि वह बड़ी कंपनियों क े हितों को देखते हुए इस तरह की चीजों पर रोक लगाने की कोशिशा करती रहती है.

इसी तरह से गन्ने से बनने वाले एथनाल को ईधन के रूप में इस्तेमाल करना भी देश की आत्मनिर्भरता की दिशा में बड़ा काम हो सकता है. लगभग तीन दशक पहले ही यह सिद्घ हो चुका था कि एथनाल को पेट्रोलियम इंर्धन के साथ म्०-स्त्र० प्रतिशत तक मिश्रित किया जा सकता है. ब्राजील जैसा देश तो काफी पहले से ऐसा कर भी रहा है. हमारे देश की स्थिति यह है कि जाने कितनी कमेटियां विचार-विमर्श कर चुकीं तो भी सिर्फ भ्-क्० प्रतिशत पर बात अटकी हुई है. एथनाल पर कुछ काम हुआ होता तो देश का तेल आयात में खर्च होने वाला बहुत बड़ा धन बचाया जा सकता था, पर राजनीति के आगे जनहित का भला या अर्थ?

ज्यादातर लोगों के लिए यह जानना आश्चर्यजनक होगा कि उत्तर प्रदेश और राजस्थान में कुछ किसानों ने सरसों के तेल से इंजन चला लिया. कुछ तकनीक सुधार हों तो शायद यह किसानों के लिए काफी सुविधाजनक हो सकता है.इसी तरह यह जानना तो एकबारगी अविश्वसीय ही लगेगा कि महाराष्ट ्र के पंकज देगंावकर नाम के एक युवा इंजीनियर ने पानी को ईंधन के रूप में इस्तेमाल किए जाने की असीम संभावनाएं खोल दी हैं. एक आसान सी तकनीक से पानी से हाइड्रोजन को अलग हेाते हुए और इससे मोटरसाईकिल या जीप वगैरह चलते हुए देखना किसी आश्चर्य से कम नहीं है. पंकज का दावा है कि कभी न खत्म होने वाले पानी का इस तरीके से इस्मेमाल करके हवाई जहाज तक उड़ाए जा सकते हैं.

यह तो साधारण लोगों द्वारा किए गए असाधारण कामों की थाे़डी सी बानगी मात्र है. इसी तरह देश के कोने-कोने में जाने कितनी गुमनाम प्रतिभाएं होंगी जिन्हें हम जानते ही नहीं. यह भी एक दुखद पहलू है कि हमारे तमाम प्रतिभाशाली नौजवान जब यहां उपेक्षाएं झेलते हुए विदेशों का रूख कर लेते हैं और वहां अपना जौहर दिखाते हैं तो हमारी सरकारें सिर्फ उनके भारतीय मूल के होने का गौरवगान करके आत्मतुष्ट हो जाती हंै. डॅा. हरगोविंद खुराना से लेकर कल्पना चावला तक सबकी यही कहानी है,जिनसे देश को कोई लाभ नहीं मिल सका. काश इस देश के रहनूमा पूरी दुनिया के नए घटनाक्रम से कुछ सबक लें और देश की आत्मनिर्भरता की राह में राे़डे अटकाना बन्द करें तो यहां के लोग इसे अपने ही बूते एक स्वालंबी-स्वाभिमानी राष्ट ्र की छवि दे सकते है.



प्रेमी युगल को कानून का आसरा


सहारनपुर के थाना मंडी क्षेत्र में आली मोहल्ले की चुंगी निवासी शुमायला परवीन और जनकपुरी क्षेत्र के टीचर्स मोहल्ले में रहने वाले शहवेज अहमद बालिग हैं और विवाहित हैं. लेकिन इसके बावजूद इन दोनों को एक साथ रहने के लिए न सिर्फ उच्च न्यायालय और पुलिस, बल्कि मानवाधिकार आयोग तक की शरण लेने का मन बनाना पड़ा है.
उच्च न्यायालय द्वारा कुछ समय तक इन्हें सुरक्षा भी दी गई. मगर तब भी बात नहीं बनी और इस युगल के मानवाधिकार आयोग से लेकर प्रधानमंत्री तक गुहार लगैाने का निर्णय कर लिया था. दरअसल, इन दोनों ने प्रेम विवाह किया है और पत्नी के परिवार वाले इस विवाह के सख्त खिलाफ हैं. उच्च शिक्षा प्राप्त इस प्रेमी युगल को ने जब अपने-अपने फैसले की जानकारी अपने घर-परिवार वालों को दी तब शाहवेज अहमद ने परिवारजन तो उनके इस निर्णय पर सहमत हो गए मगर, शुमायला परवीन के परिवारजनों ने इस पर हामी नहीं भरी. वे शुमायला का निकाह किसी दूसरी जगह करने पर अड़ गए. मामला अपने पक्ष में सुलटता हुआ नहीं दिखने पर दोनों ने अदालत की शरण ली और वहां शादी करके अपनी सुरक्षा की अपील की. उच्च न्यायालय के दो जजों की खंडपीठ ने जिला प्रशासन को इस दंपत्ति की सुरक्षा के निर्देश दिए.


मणिपुर म्यामार सीमा पर संघर्ष


मणिपुर म्यांमार सीमा पर कूकियाँ और मैतेई के बीच संघर्ष कोई अचानक नहीं शुरू हो गया है बल्कि इसकी आश्ंाका तो बहुत पहले तो जताई जा रही थी


मणिपुरम्यांमार सीमा पर स्थिम मोरे बाजार इलाके में जून के प्रथम पखवारे के दौरान कूकी और मैतेई संघर्ष में कोई दर्जन भर लोग मोर गए. प्रभावित लोग दोनों समुदायों के हैं. यह इलाका कूकी आदिवासी बहुल है. यहां संघर्ष अचानक शुरू नहीं हुआ है. नफरत और हिंसा की सुगबुगाहट बहुत पहले से थी और इस बात की खबर स्थानीय प्रशासन को भी थी.घुमक्कड़ प्रवृत्ति के कूकी आदिवासियों के समक्ष अस्तित्व का संकट आ पड़ा है. अब वे समय के उस नाजुक माे़ड पर खड़े हैं, जहां उनके पास अपने समुदाय को बचाने के लिए किसी भी स्थिति में जाने की मजबूरी हो गई है. यही वजह है कि गत नौ जून को उन्होंने जब अपने पाँच लोगों के शव देखे तो प्रतिक्रिया में छह मैतेई मछुवारों की हत्या कर दी. उसके बाद से जातीय दंगे की आश्ंाका पैदा हो गई और प्रशासन को कफर्यू लगाना पड़ा. करीब दस दिनों के तनाव के बाद मोरे बाजार में शाम होने से पहले तक कारोबार आरंभ करने की अनुमति दी गई है, लेकिन कूकी समुदाय के लोग किसी बड़े हमले की आशंका के बीच जी रहे हैं.

मणिपुर, असम, नगालैंड और मिजोरम में फैले कूकी आदिवासियों के पास कोई होमलैंड नहीं है. हर जगह से उन्हें खदे़डा जाता रहा है. पहले तो जंगलों में घूमते रहते थे. झूमखेती ही उनके जीवन का आधार रहा है. घुमक्कड़ होने के कारण उनके पास अपनी जमीन का कोई कागजात नहीं है. जिस नए इलाके में वे बसते हैं, वहां की स्थानीय जनजातियों के साथ उनका संघर्ष होता है. संघर्ष की इसी परिणति ने उन्हें कूकी नेशनल आर्मी नामक बागी संगठन बनाने को मजबूर किया. कुछ साल पहले असम के कार्बी आंग्लांग की पहाड़ी कूकी-कार्बी संघर्ष की वजह से ख्ूान से लाल हो गई थी. क्ेेख्-ेभ् के दौरान मणिपुर के इसी इलाके में नगा-कूकी संघर्ष के दौरान काफी लोग मारे गए थे.तब बड़ी संख्या में नगा गए थे. इसका प्रभाव सीमा व्यापार पर भी पड़ा, योंकि नगा बेहतर व्यापारी भी थे. मणिपुर के म्यांमार से सटे इलाके मंे सीमा के दोनों ओर कूकी आदिवासियों की अच्छी संख्या है और अब वे उसी इलाके में जमे रहना चाहते हैं, लेकिन मणिपुर के मैतेई बागी संगठनों के म्यांमार जाने का रास्ता भी उधर से ही है. खुफिया सूत्रों का कहना है कि जंगलों मेें प्रशिक्षण लेते हैं और मणिपुर आने के लिए कूकी बहुत इलाकों से गुजरते हैं. कूकी नहीं चाहते हैं कि मैतेई बागी उनके इलाके में शरण लें. जब उन्होंने विरोध किया तो बागियों ने पाँच कूकियों की हत्या कर दी. नौ जून से आरंभ हुई हिंसा की मूल वजह यही थी. इस इलाके में मैतेई कमजोर हैं. कहा तो यह भी जा रहा है कि दूरदराज के इलाके में भी मौतें हुई हैं, लेकिन प्रशासन इसे दबा रहा है. सीमा की रखवाली के लिए तैनात असम राइफल्स के अधिकारियों का आरोप है कि म्यांमार सुरक्षाबल मूकदर्शक बने हुए हैं. यदि उस तरफ से कार्रवाई हो तो बागियों पर दबाव बढ़ेगा. ये बागी मणिपुर में हिंसा फैलाकर वापस लौट जाते हैं. कुछ अधिकारी सीमा पर असम-बांग्लोदश सीमा की तरह बाड़ लगाने की सलाह दे रहे हैं, लेकिन इस प्रस्ताव का कूकी संगठन विरोध करते हैं. पिछले सप्ताह मोरे के दौरे पर गए सांसद चेरेनमई को हिल ट्राइबल काउंसिल, कूकी स्टुडेेंट्स आर्गेनाइजेशन ने स्मारक पत्र देकर बाड़ लगाने का विरोध किया है. उनका कहना है कि कूकी आदिवासी सीमा के दोनों ओर रहते हैं. दोनों तरफ के लोगों की भाषा, परंपरा और संस्कृति एक जैसी है. बाड़ लगाने से वे बंट जाएंगे, उनकी आबादी पहले से ही बिखरी हुई है. मोरे के मैतेई काउंसिल के अध्यक्ष आई इबोबी ने भागे हुए नगाआें को वापस बुलाने की मांग की है. मोरे और इसके पास के इलाके में सताए हुए कूकियों की संख्या लगातार बढ़ रही है.
इम्फाल शहर में कूकियों की दो बस्तियों को मैतेइयों ने उजाड़ दिया. वे भाग कर मोरे आ गए. उसी तरह मणिपुर के नगा बहुल इलाकों से कूकियों का आना जारी है. हिंसा की वजह से दर-ब-दर कूकी आदिवासी अपने अस्तित्व के लिए अब होमलैंड की मांग करने लगे हैं और टकराव की मूल वजह यही है. यह बात मैतेई और नगा स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं.

करीब एक दर्जन कूकी संगठनों ने राष्ट ्रपति डॅा. एपीजे अब्दुल कलाम को भेजे गए एक स्मरण पत्र में बागी संगठन यूनाइटेड नेशनलइ लिबरेशन फोर्स (यूएनएलएफ) और म्यांमारी सेना पर चार सौ कूकियों के अपहरण तथा यातना देने का आरोप लगाया है.

पत्र में कहा गया है कि भारत सरकार पर से उनका भरोसा उठता जा रहा है. सन क्ेेख् से अब तक नौ से अधिक कूकियों की हत्या की जा चुकी है और कूकी-नगा संघर्ष के दौरान करीब एक लाख लोग विस्थापित हो गए. उन पर कभी यूएनएलएफ तो कभी नगा बागी हमले करते हैं. भारतीय सुरक्षा बल भी पीछे नहीं हैं. मणिपुर की पहाड़ियों को यूएनएलएफ मुक्त क्षेत्र घोषित करना चाहती है. इसके लिए कूकी बस्तियों को लैंडलाइन से उड़ाया जा रहा है. अब तक तैंतीस बस्तियां तबाह हो चुकी हैं.कूकियों को भगाने के लिए महिलाआें के साथ सरेआम बलात्कार हो रहे हैं. ये सारी वजहें हैं कूकियों के हिंसक होने की.



निर्वासन में तिब्बती जिंदगी की रोचक गाथा

नीरजा माधव के हिंदी उपन्यास 'गेशे जम्पा` में निर्वासन के दर्द और संघर्ष का सुंदर चित्रण

वजय क्रांति

हालांकि तिब्बती शरणार्थी समाज को भारत में रहते हुए अब पचास साल होने को हैं और यह समाज राजनीतिक और सामाजिक-सांस्कृतिक कारणों से लगातार चर्चा में भी रहा है. पर यह देखकर हैरानी होती है कि भारतीय साहित्य में इस समाज को लेकर लिखी गई साहित्यिक रचनाआें, खासकर उपन्यासों की संख्या उंगलियों की गिनती भी पूरी नहीं करती.

क्ेभ्े में भारत पहुंचे तिब्बती शरणार्थियों की दयनीय हालत पर शुरु-शुरु में कई बड़े हिंदी लेखकों की कुछ कहानियों और स्मरणों में हींग और स्वेटर बेचने वाले तिब्बतीविषयवस्तु जरुर रहे. लेकिन बाद में श्री बल्लभ डोभाल के 'तिब्बत की बेटी` उपन्यास के बाद हिंदी में बरसों तक इस विषय पर कोई उपन्यास पढ़ने सुनने को नहीं मिला.
कुछ महीने पहले सुश्री नीरजा माधव के उपन्यास गेशे जम्पा ने इस रिक्तता को बहुत अच्छे रंगों से भरा है. सारनाथ की पृष्ठ भूमि वाले उनके इस उपन्यास की कहानी वहां की महाबोधि विद्या परिषद द्वारा चलाए जाने वाले एक तिब्बती स्कूल और कुछ स्थानीय तिब्बती शरणार्थियों के आसपास बुनी हुई है. इसी छोटे से समाज के संदर्भ से लेखिका ने भारत में रहने वाले तिब्बती समाज की राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृति जिंदगी का एक ऐसा परिचय दिया है जो हर पन्ने पर दिल को छू लेने की ताकत रखता है.

इस उपन्यास की कहानी के मुख्य पात्र स्कूल के प्रधान गेशे जम्पा हैं जो एक तिब्बती भिक्षु और विद्वान होने के साथ-साथ तिब्बत की निर्वास सरकार में एक मंत्री भी हैं. दूसरा मुख्य पात्र स्कूल में हाल ही में नियुक्त भारतीय अध्यापिका देवयानी है जिसके मन में तिब्बती समाज के लिए ढेर सारी करुणा और सहानुभूति भी है और गेशे जम्पा के प्रति आकर्षण भी. लेकिन यह आकर्षण उनके प्रति आदर और तिब्बती आजादी के संघर्ष में उनकी लगन से उपजा स्नेह ज्यादा है और स्त्री-पुरुष वाला व्यक्तिगत प्रेम कम.

अगर आप भारत में रहने वाले तिब्बती समाज और उसके राजनीतिक संघर्ष के बारे में थोड़ा बहुत भी जानते हैं तो उपन्यास के शुरुआती पन्नों में ही आपको समझ आ जाएगा कि लेखिका का मन इस समाज के प्रति सहानुभूति, करुणा और अनुराग से भरा हुआ है. यह अनुराग कहानी के अलग-अलग चरित्रों की आपसी बातचीत, खासकर नोंकझोंक के बहाने व्यक्त होने का रास्ता बनाता चलता है. कई बार ऐसा लगता है मानो लेखिका चलता है. कई बार ऐसा लगता है मानो लेखिका खुद को देवयानी के रास्ते व्यक्त करना चाह रही है.

उपन्यास की कहानी के माध्यम से लेखिका ने काफी विस्तार से भारत में रहने वाले तिब्बती शरणार्थियों की तंग आर्थिक हालत, उनके मन में तिब्बती आजादी की ललक, तिब्बत के भीतर चीनी अत्याचारों के कारण उन्हें वहां से भागने पर मजबूर करने वाली परिस्थितियों, इस कारण पैदा होने वाली त्रासद भावनात्मक स्थितियों, निर्वास के वातावरण से तिब्बती युवाआें के एक वर्ग में पैदा होने वाली कुंठाआें, कुछ भारतीयों के मन में कभी कभार तिब्बती शरणार्थियों क प्रति उठने वाली आशंकाआें और, चीन सरकार की ओर से शरणार्थियों के खिलाफ चलाए जाने वाले कुचक्रों का बहुत बारीकी से वर्णन किया है.

उदाहरण के लिए अनाथ शरणार्थी बच्चों को पालने वाली भिक्षुणी बनने की कहानी के रास्ते लेखिका ने बहुत सहज तरीके से बताया है कि किस तरह तिब्बत में चीनी सैनिकों के आ धमकने और उनके अत्याचारों के कारण आम लोगों को देश से भागकर भारत से शरण लेनी पड़ी. भिक्षुणी लोये दोलमा की शरण में सौंपे गए नन्हें बालक ताशी का रह-रहकर मां को याद करके रोना पाठक को आसानी से बता देता है कि आज पचास साल बाद भी तिब्बत में चीनी अत्याचारों और तिब्बतियों की दुर्दशा का हाल यह है कि पांच साल के छोटे से बच्चे को उसकी मां इस उम्मीद से किसी के हाथ भारत भाग जाने के लिए भेज देती है कि वहां दलाई लामा के किसी स्कल में अच्छी शिक्षा पाकर वह इंसानों जैसी जिंदगी पा जाएगा. इसी तरह गेशे जम्पा के मौसा मग्पा के चरित्र के माध्यम से उपन्यास पाठक को आसानी से यह बता देता है कि तिब्बत में विदेशी चीनी शासन के खिलाफ संघर्ष में वहां की युवा पीढ़ी ने खासी भूमिका निभाई है.

उपन्यास का एक और रोचक पहलू शीतल पटेल और देवयानी के भाई दीपेश जैसे पात्र हैं. इन पात्रों के माध्यम से लेखिका ने भारतीय समाज के मन में तिब्बती शरणार्थियों के बारे में उठने वाली आशंकाआें को भी बहुत अच्छा स्वर दिया है और इनके निवारण के लिए उसने देवयानी के तर्कों का भी प्रभावकारी इस्तेमाल किया है. शीतल पटेल और उसके तिब्बती दोस्तों की गंगा पार एक वीरान टापू पर ड्रग पार्टी और नशे में उनकी नोंकझोंक के माध्यम से लेखिका ने निर्वासन में रहने वाली तिब्बती युवा पीढ़ी की कुंठाआें को भी ईमानदार स्वर दिया है. पर इसके साथ-साथ तिब्बती युवा कांग्रेस के कार्यकर्ता टन्चू धोंदुप के रास्ते लेखिका ने पाठकों को यह बताने का प्रयास भी किया है कि युवा तिब्बती शरणार्थियों की मुख्य धारा तिब्बती आजादी के संघर्ष में बहुत सक्रियता से जुटी हुई है.
इस विवरण को देखकर लगता है कि लेखिका ने इस उपन्यास की तैयारी में इस समाज के बारे में काफी गंभीरता से शोध किया है. कई स्थानों पर तिब्बती भोजन, त्यौहारों और सामाजिक व्यवहार की बारीकियों का विवरण इस बात की पुष्टि करता है, लेकिन तिब्बती नामों के मामले में यह शोध सामान्य से कुछ ज्यादा ही किताबी हो गया है. ज्यादातर नामों को इतने शास्त्रीय ढंग से लिखा गया है कि वे प्रचलित शैली के सामने बनावटी और इतने पराए लगने लगते हैं कि आम तिब्बतियों को भी स्वीकार करना मुश्किल लगे. हालांकि यह कमी उपन्यास को कमजोर तो नहीं करती पर प्रचलित शैैली में नामों के लिखने से पाठक के लिए उनकी स्वीकार्यता आसान की जा सकती थी. उदाहरण के लिए फुङ्चुङ की जगह ्रचलित नाम फुंचोग या फुंसोग और सीरीङ् की जगह सेरिंग जैसे आसान और प्रचलित नाम पाठक के लिए पढ़ने और याद रखने में आसान रहते. इसी तरह कुछ स्थानों पर सामान्य पात्रों की बातचीत में कठिन भाषा में गंभीर राजनीति टिप्पणियां एक उपन्यास के संधर्भ में कुछ भारी लगती है. लेकिन उपन्यास के अपने राजनीतिक संदर्भ और लेखिका के उ ेश्य को देखते हुए इस बोझिलता को स्वीकार किया जा सकता है. कुल मिलाकर यह उपन्यास हिंदी पाठक को प्रचलित लेखन प्रकाशन की धारा से कुछ दूर ले जाकर एक ऐसे विषय से नया और रोचक परिचय कराने में सफल रहा है जो कहने को भले ही हिंदी पाठक के लिए एक पुराना विषय हो पर जिसके बारे में लेेखकों ने अब तक केवल आधा अधूरा न्याय किया है. इसके लिए नीरजा माधव बधाई की पात्र हैं. नीरजा माधव हिंदी की एक अनुभवी लेखिका हैं. इससे पहले उनके दो उपन्यास और भ् कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं. वह आजकल वाराणसी के आकाशवाणी केंद्र में कार्यक्रम अधिशासी के रुप में काम कर रही हैं. उन्हें अपने लेखन के लिए उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, भारतेंदु अकादमी और अखिल भारतीय विद्वत परिषद द्वारा सम्मानित किया जा चुका है. तिब्बत देश से साभार

नीरजा माधव की रचनाएं
(कहानी संग्रह)- चिटके आकाश का सूरज, अभी ठहरों अंधी सदी, आदिमंध तथा अन्य कहानियां, पथदंश, चुप चंतारा, रोना नहीं,
(उपन्यास)- तेभ्य: स्वधा, यमदीप, गेशे जम्पा,
(पुस्तक)- रेडियो का कलापक्ष
(पुरस्कार)- उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, भारतेंदु अकादमी, अखिल भारतीय विद्वत परिषद




रंग लाई महिला नाईयों की जिजीविषा

दो साल लंबी लड़ाई कामयाब हुई और तिरूपति मिरूमाला देवस्थानम में कम से कम एक क्षेत्र से पुरूषों का वर्चस्व टूटा. मंदिर प्रशासन ने काफी ना-नुकुर के बाद महिला नाईयों की नियुक्ति को मंजूरी दे दी है.
-विद्या हरिबेलके

आखिरकार लंबे समय तक चले मंथन में दक्षिण भारत के सबसे बड़े धार्मिक तीर्थ मंदिर तिरूमाला में अब महिला नाई भी उन महिला श्रद्घालुआें और बच्चों का मुंडन कर सकेंगी जो भगवान बालाजी की पूजा के रीति-रिवाज में उन्हें अपने बालों को समर्पित करते हैं.कोंडा अनम्मा, उन सौ महिलाआें में से एक हैं जिन्हें तिरूमाला तिरूपति देवस्थानम में महिला नाई के तौर पर रखा गया है. उनका कहना है कि हमें खुशी है कि दो साल के संघर्ष में पुरूष नाईयों, मंदिर प्रशासन और धार्मिक मठाधीशों के विरोध के बावजूद जीत हमारी हुई है. तिरूमाला तिरूपति देवस्थानम के अध्यक्ष बी. करूणाकर रेड्ड ी बताते हैं कि पहले बैच में पच्चीस महिला नाईयों की नियुक्ति की जा चुकी है और शुरूआती हिचकिचाहट के बाद इन्होंने अपने काम को अच्छी तरह से अंजाम देना शुरू कर दिया है. अब कुछ ही दिनों में दूसरे बैच की सौ और महिला नाई इस पद को ग्रहण करने वाली हैं. तिरूमाला तिरूपति देवस्थानम के नए कार्यकारी अधिकारी के.वी. रामाचारी कहते हैं कि महिला नाई मंदिर प्रशासन के दूत के रूप में भी काम कर रही हैं. वे महिला श्रद्घालुआें को बता रही हैं कि कैसे मंदिर प्रशासन उनके लिए भगवान के दर्शन के दौरान आने वाली परेशानियों को खत्म करने और उनके कल्याण संबंधी सुविधाआें के लिए कार्य कर रहा है. इसके अतिरिक्त हमारे धर्म संदेश को भी फैलाने और इसके आधारभूत ढांचे को मजबूत करने का काम वे कर रही हैं. तिरूमाला के ही कल्याण कट्टा की एक अन्य महिला नाई सिरी पद्मा बताती है कि पुरूष नाइयों ने अपनी आमदानी में होने वाली कटौती के चलते पुराण में लिखे आगम शास्त्र का हवाला देते हुए हमारी नियुक्ति और रोजगार का विरोध किया था, मगर नागरिकों की मांग और दबाव में उन्हें हमें लेना पड़ा. कल्याण कट्टा के इंजार्च अधिकारी गोविंद रेड्ड ी कहते हैं कि श्रद्घालुआें के मुंडन मेें तिरूमाला तिरूपति देवस्थानम प्रशासन ख्भ् रूपये प्रति श्रद्घालुआें की दर से फीस लेता है जिससे उसे प्रतिदिन दो लाख रूपये की आमदनी होती है. वहीं एक पुुरूष नाई श्रद्घालुआें से इसके अतिरिक्त प्रतिदिन क्०० से भ्०० रूपये की आमदनी निजी शुल्क के माध्यम से करता है.

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