यह मुद्दा वैसे तो हमेशा ठंडे बस्ते में ही पड़ा रहता है, लेकिन जब कोई दुर्घटना घटती है तब यह मुद्दा ठंडे बस्ते से बाहर आ जाता है. शहरी क्षेत्रों में तो रेल फाटकों पर हमेशा दुर्घटनाएं और भीड़भाड़ की समस्या बनी रहती है
आजाद चिंगारी
-विक्रम जनबंधु
प्रदेश भाजपा की चम्पारण्य में आयोजित चिंतन बैठक में एक ही मु ा सामने आया और वह था, अगला चुनाव पार्टी कैसे जीतेगी? इस बैठक में पार्टी ने असंतोष को खत्म करने के लिए सांसद रमेश बैस की अध्यक्षता में एक समिति का गठन करके यह जताने का प्रयास किया है कि पार्टी में न तो कोई गुटबाजी है, न ही असंतोष.अब सब मिल कर अगला चुनाव जीतने पर जोर लगाएंगे चिंतन बैठक में की गई भाजपा नेताओं की चिंता बेमानी नहीं है. साढ़े तीन साल तक सत्ता का सुख भोगने के बाद अब भाजपा को अँगूर खट्टे लगने लगे हैं.
जो सात विधायक दिल्ली दरबार में दस्तक दे चुके हैं,उन्होंने भी अपने वरिष्ठ नेताओं को यह बता दिया था कि छत्त्तीसगढ़ में जो खेती रमन सिंह सरकार कर रही है, उसमे अँगूर खट्ट़े ही होंगे और मीठे फलों का स्वाद चखना पार्टी भूल जाए.मगर संगठन ने इसे असंतुष्टों की चुनौती माना और अनुशासन की तलवार दिखाकर उन्हेंं चुप रहने को बाध्य कर दिया. मगर चम्पारण्य चिंतन बैठक का लब्बोलुआब यही है कि मौजूदा परिस्थितियों में पार्टी का सत्ता में लौटना मुश्किल ही है. फिर भाजपा के सामने एक स्वाभाविक स्थिति यह भी है कि सत्ता के घाे़डे पर सवार होने वाले घु़डसवारों को नकारात्मक वोटों का मजा भी लेना पड़ता है. ऐसे में सत्तारूढ़ भाजपा की यह चिंता वाजिब है कि यदि तोते हाथ से उड़ जाए तो?
हालांकि खैरागढ़ और मालखरोदा उपचुनाव जीतने के बाद भाजपा उत्साहित है कि लोग उसके कामकाज को पसंद कर रहे हैं. रमन सरकार में मंत्री तो इससे बेहद खुश हैं. लेकिन असंतुष्ट खेमा इस बात को कुछ ज्यादा ही प्रचारित कर रहा है कि रमन के नेतृत्व में अफसर बेलगाम हो गए हैं और मंत्री मदहोश.ऐसे में भाजपा का आम कार्यकर्ता उपेक्षित है और कुछ ही लोग मलाई मारने में लगे हैं. कुछ सांसद मंत्री और विधायक तो सरकार में उपेक्षित पड़े खून के आँसू रो रहे हैं और कुछ लोगों का सरकार और अफसर पर राज कायम है. वे दोनों हाथों से राज्य की धनसंपदा को इस कदर लूटने में लगे हैं कि सरकार को आम आदमी के हितों का कोई ख्याल नहीं रह गया है. सार्वजनिक वितरण प्रणाली और दूसरे संसाधनों की लूट और उनका अपने हितों में इस्तेमाल होने से प्रदेश का आम आदमी रोटी, कपड़ा और मकान की समस्या से ही उबर नहीं पा रहा है तो वह नए राज्य के नए सपनों का दोहन कैसे कर पाएगा. नागरिकों के कल्याण के लिए जो भी घोषणाएं सरकार ने की है उन योजनाओं का लाभ उन्हें यों नहीं मिल रहा है, राे़डा कहाँ अटक रहा है, इस पर चिंतन बैठक में कोई चिंतन नहीं हुआ. केवल असंतुष्टों को खामोश करके अगले चुनाव की वैतरणी पार कर लेने का मुगलता पाल लेना भाजपा के लिए खतरनाक साबित हो सकता है. प्रदेश के आम आमदी की सरकार से नाराजगी या है, इस पर भाजपा ने कोई मंथन नहीं किया है. इन प्रतिकूल परिस्थितियों मंे उस कबूतर की तरह आँख मूंदने में या हर्ज है जिस पर बिल्ली झपटने को तैयार बैठी है.
रेल फाटकों की समस्या
प्रदेश मंे रेल फाटकों से मुक्ति दिलाने का मु ा भी मौसमी बुखार की तरह आता है और चला जाता है, लेकिन समस्या जस की तस है.एक बार फिर यह बुखार चढ़ता दिखाई दे रहा है.फाटकों पर बढ़ने वाली भीड़ और फाटकों के नीचे से वाहन लेकर पटरी पार करने वालों के साथ होने वाली दुर्घटनाओं को देखते हुए यह समस्या रेल बाईपास बनाकर सुलझाई जानी है अथवा ओव्हरब्रिज बनाकर, अभी इस पर एकराय नहीं है.नई राजधानी बनने के बाद कुछ हद तक ओव्हर ब्रिज और अंडर ब्रिज बनाकर इस समस्या का हल निकाला गया है. कई स्थानों पर बिना फाटक के रेल क्रासिंग भी बने हुए हैं, जहाँ दुर्घटनाओं की सबसे ज्यादा आशंका रहती है. मानव रहित यह फाटक एक तरह से सीधे मौत के फाटक साबित होते हैं.
यह मु ा वैसे तो हमेशा ठंडे बस्ते में ही पड़ा रहता है, लेकिन जब कोई दुर्घटना घटती है तब यह मु ा ठंडे बस्ते से बाहर आ जाता है. शहरी क्षेत्रों में तो रेल फाटकों पर हमेशा दुर्घटनाएं और भीड़भाड़ की समस्या बनी रहती है. जल्दी जाने वालों के लिए तो रेल फाटक हमेशा समस्या होते ही हैं, अस्पताल या जरूरी काम पर जाने वालों के लिए भी यह आफत बन जाते हैं. इस समस्या का समाधान अंडरब्रिज या ओव्हरब्रिज बनाकर किया जा सकता है, लेकिन यहां भी राजनीति अपना असर दिखाती है और अ सर नेता ऐसे स्थानों पर ब्रिज बनवाते हैं भले ही उसका उपयोग जनसंख्या के अनुपात में न होता हो. ज्यादातर अंडरब्रिज और ओव्हर ब्रिज अ सर इसी राजनीति का शिकार हैं.
बैंक मैनेजरों की दादागिरी
राष्ट ्रीयकृत बैंकों के मैनेजर इन दिनों पूरी दादागिरी दिखा रहे हैं. केन्द्र हो या राज्य सरकार, इनकी जनकल्याणकारी योजनाओं को मिट्ट ी में मिलाने का काम यही राष्ट ्रीयकृत बैंक कर रहे हैं. मामूलरी सा दो हजार रूपए का लोन देने के लिए यह ग्राहक को बैंक के इतने चक्कर लगवाते हैं कि ग्राहक के जब जूते घिस जाते हैं चक्कर काट-काटकर तो वह बैंक से लोन लेने का ख्याल ही त्याग देता है. आम आदमी के पक्ष में होने का दावा करने वाले बैंक किसी को लोन देना तो दूर की बात आजकल बैंक में खाता खोलने के लिए सौ-सौ नखरे दिखाते हैं.यदि किसी तरह खाता खोल भी दिया तो चेक बुक जारी करने में इनकी नानी मर जाती है. आजकल बैंकों से चेक बुक जारी करवाने में ग्राहकों को नाकांे चने चबाने पड़ रहे हैं. कुछ बैंक अधिकारी तो यहां तक कहते सुने जाते हैं कि भले ही अपका खर्चा ख्भ् साल पुराना हो, पर चेकबुक नहीं मिल सकता. आप चाहे तो खाता कैंसिल करा सकते हैं. इसमें एसबीआई बैंक के अधिकारी कुछ ज्यादा ही सक्रिय थे.यह कितनी विडम्बना है कि बैंक चेकबुक देने से ग्राहकों को तो हिला हवाला कर रहे हैं, लेकिन सात-आठ सौ रूपया यदि दलाल को दे दिया जाए तो नए खाते का पासबुक और चेकबुक पिछले दरवाजे से वहीं मैनेजर जारी करने में जरा भी देने नहीं लगाते. आजकल जब निजी बैंक बड़ी आसानी से लोन पास कर रहे हैं, तब राष्ट ्रीयकृत बैंकों के पास भला चक्कर काटने कौन जाए? यही कारण है कि जब बैंक अधिकारियों, कर्मचारियों की हड़ताल होती है तो आम जनता की कोई सहानुभूति उनके साथ नहीं होती.
पत्रकार का शब्दबाण
एक बड़ी निजी कंपनी के पास बैठा एक छुटभैया पत्रकार डींगे हाक रहा था कि मैंने फलां न्यूज छापकर फलां कंपनी को हिला दिया, फलां न्यूज छापी तो फलां अधिकारी का काम, तमाम गया हो गया. तभी पत्रकार के मोबाईल की घंटी घनघना उठी.फोन पर आई सूचना सुनकर पत्रकार का चेहरा फ क्क हो गया.पीआर ने पूछा, या हुआ? पत्रकार रूआं से स्वर मंे बोला, अब मैं इस अखबार का पत्रकार नहीं रहा. पीआर बड़ी देर से उसकी बकवास सुन रहा था. अब उसे मौका मिल गया. उसने तुरंत व्यंग्यात्मक लहजे में कहा, तुम तो यार बड़ी-बड़ी कंपनियों, अधिकारियों को हिला रहे थे. अब खुद ही हिल गए. पत्रकार काा चेहरा देखने लायक था.
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